गांव में एक दम्पति रहा करता था। पति थोड़े गर्म मिजाज के थे। गांव के बाहर संन्यासियों का अखाड़ा था। जब पति महोदय गुस्से में होते तो पत्नी से कह देते, ''अब मैं सब कुछ छोड़कर संन्यासी हो जाऊंगा।'' पति की बात सुन पत्नी डर जाती। एक दिन अखाड़े के एक साधु भिक्षा मांगने उस दम्पति के घर पहुंचे तो महिला ने साधु से पूछा, ''महाराज, क्या कोई अपने घर-परिवार को यूं ही छोड़ संन्यासी बन सकता है?''

संन्यासी बोले, '' तुम यह प्रश्न क्यों पूछ रही हो?'' महिला ने रोते हुए उन्हें अपने पति की बात सुना दी। संन्यासी ने कहा, ''कभी तुम्हारे पति फिर घर छोडऩे की धमकी दें तो उनसे कहना- आप जो मर्जी कर सकते हैं।'' कुछ दिन बाद समय से भोजन नहीं बना तो पति ने आग बबूला हो घर छोडऩे की धमकी दी। पत्नी ने भी कह दिया, ''आप जो मर्जी आए कर सकते हैं।'' पति आनन-फानन में उठा और अखाड़े पर जा पहुंचा। संन्यासी ने उसकी आवभगत की। फिर उसे फटे-पुराने कपड़े दिए और भिक्षा पात्र सौंप अपने पीछे चलने को कहा। कई गांव घूमने के बाद कुछ बासी भोजन भिक्षा में प्राप्त हुआ। रोटियां कड़क थीं और दाल भी खराब।

ऐसा भोजन देख पति ने संन्यासी से पूछा, ''यह क्या है?''

उन्होंने कहा, ''जो मिले, उसे हम पकवान समझ कर ग्रहण करते हैं। हमारी यही जीवनचर्या है।'' पति को अपनी भूल समझ में आई। उसने पत्नी से क्षमा मांगी। वस्तुत: जीवन के अनुभवों को गंभीरता से लेने और सहनशील मनोवृत्ति में ही सुखी जीवन का रहस्य छिपा है।