बड़ी उम्र की कुँवारी लड़कियाँ घर बैठी हैं 

 

बेहद ही देरी से होते रिश्ते वर्तमान में समाज की एक बेहद ही गंभीर समस्या!

 

 दैनिक द लाॅयन सिटी - अगर अभी भी माँ-बाप नहीं जागे तो स्थितियाँ और भयावह हो सकती हैं! समाज आज बच्चों के विवाह को लेकर इतना सजग हो गया है कि आपस में रिश्ते ही नहीं हो पा रहे हैं। वर्तमान में सहजता व सरलता के साथ शादी के रिश्ते हो पाना नामुमकिन सी बात हो गयी है। 

 

 मित्रों स्थिति इतनी भयावह है की समाज में आज 25 वर्ष से लेकर 38 वर्ष तक की बहुत सी कुँवारी लड़कियाँ घर पर बैठी हैं, जानते हैं क्यूँ, क्योंकि इनके सपने हैसियत व सपने देखने के दायरे से भी कई गुना ज्यादा हैं ! 

 

यह स्थिति बेहद ही चिंताजनक एवम समाज को विनाश की तरफ ले जाने वाली है मित्रों! समाज में ऐसी मानसिकता व ऐसी विचारधारा तथा ऐसे लोगों के कारण समाज की छवि बहुत ही खराब हो रही है।

 

 अगर यथार्थता एवम सत्य की बात करें तो सबसे बड़ा मानव-सुख, सुखी वैवाहिक जीवन होता है, जीवन-शास्त्र का भी यह प्रमुख सिद्धांत है। मित्रों रुपया व पैसा जीवन की मूल आवश्यकता को पूर्ण करता है, लेकिन जीवन जीने का आधार व जीवन नहीं होता अथार्थ पैसा भी आवश्यक है, लेकिन कुछ हद तक।

 

पैसे, संपत्ति व दिखावे की वजह से अच्छे रिश्ते ठुकराना बेहद ही गलत बात है सबसे पहले अपने जीवनसाथी में गुण व संस्कारों की दौलत को देखना व परखना चाहिए क्योंकि यही एक ऐसी दौलत होती है जो जीवन को आगे चलकर सुखमय बनाने का कार्य स्वतः ही करती है बाकी बाते व्यक्ति के कर्म और प्रारब्ध भी तय करते हैं किसी व्यक्ति के वर्तमान को देखकर उसके भविष्य का अंदाजा लगाना सबसे बड़ी मूर्खता व सबसे बड़ी बेवकूफी है। 

 

 अतः रिश्ते तय करने के लिए सबसे बड़ी प्राथमिकता उचित व मधुर व्यवहार, गुणों व संस्कारों की दौलत तथा अच्छा घर-परिवार होना चाहिये, पैसों व संपत्ति को भी देखना चाहिये परंतु अपनी हैसियत के अनुसार तथा एक हद तक। 

 

ज्यादा धन व आडम्बर के चक्कर में अच्छे रिश्तों को नजर-अंदाज करना गलत है। "संपति खरीदी जा सकती है परंतु गुण व संस्कार नहीं।

 

एक समय था जब व्यवहार, गुण व संस्कार देखकर रिश्ते तय होते थे, एवम रिश्ते निभते भी थे | समधी-समधन में मान-सम्मान, मधुर व्यवहार व निश्चल प्रेम होता था तथा यही व्यवहार सुख-दु:ख में साथी बनता था! 

 

रिश्ते-नाते की अहमियत का अहसास था, धन, दौलत व माया कम थी मगर खुशियाँ घर-आँगन में झलकती थी! कभी कोई ऊँची-नीची बात हो जाती थी तो आपस में बड़े-बुजुर्ग संभाल लेते थे यह तलाक शब्द रिश्तों में कभी था ही नहीं! 

 

दाम्पत्य जीवन खट्टे-मीठे अनुभव में बीत जाया करता था। दोनों एक-दूसरे के बुढ़ापे की लाठी बनते थे और पोते-पोतियों में संस्कारों के बीज बोते थे! अब कहां हैं वो संस्कार?? मित्रों आँखों की शर्म तो इतिहास हो गई है, अब तो रिश्तों में समझौता भी नहीं हो रहा है सीधे बातें तलाक़ तक पहुँच रही हैं, यह बेहद ही चिंताजनक, शर्मनाक व दुख की बात है। 

लेखक व साहित्यकार राकेश तुलसानी।